जोनबील मेला
हर वर्ष सैकड़ों मेले देश भर में आयोजित होते हैं। लेकिन असम में गुवाहाटी से तकरीबन 70 किलोमीटर दूर जगीरोड के पास लगने वाला सदियों पुराना जोनबील मेला कुछ खास है। यह मेला हर वर्ष माघ बिहू त्योहार के अवसर पर आयोजित होता है।
′जोन′ और ′बील′ असमिया शब्द हैं, जिनका क्रमशः अर्थ है, चंद्रमा और आर्द्र भूमि। ऐसी मान्यता है कि इस मेले की शुरुआत 15वीं शताब्दी में हुई। लेकिन इस मेले को व्यवस्थित रूप अहोम वंश के राजाओं ने दिया। अहोम राजाओं ने इस मेले का उपयोग तत्कालीन राजनीतिक हालात पर चर्चा करने के लिए किया।
हर वर्ष मेला शुरू होते ही पूर्वोत्तर भारत के पर्वतीय इलाकों में रहने वाली करबी, खासी, तिवा, जयंतिया इत्यादि जनजातियां अपने मनमोहक हस्त निर्मित उत्पादों के साथ इस मेले में आती हैं। यह देश का एकमात्र मेला है, जहां कुछ खरीदने के लिए पैसे की जरूरत नहीं पड़ती। जिस तरह से मुद्रा के चलन से पहले प्राचीन काल में वस्तु विनिमय प्रचलित था, उसी तरह यहां आज भी अदला-बदली (बार्टर प्रणाली) मौजूद है।
पहाड़ों पर रहने वाली जनजातियां वहां पैदा होने वाली सामग्री जैसे अदरक, आलू, हल्दी, मिर्च, आंवला इत्यादि लाकर यहां से तेल, मछली, चावल जैसी पहाड़ों पर न पैदा होने वाली वस्तुएं अपने साथ ले जाते हैं। इस मेले का प्रमुख उद्देश्य पूर्वोत्तर भारत में फैली तमाम जनजातियों और समुदायों के बीच शांति और सौहार्द्र की भावना का प्रसार करना है।
इस मेले में पहाड़ के ऊपर से आने वाले लोगों को मामा-मामी के नाम से संबोधित करने की अनोखी परंपरा है। यह मेला पहाड़ों और मैदानों में रहने वालों की पारस्परिक सद्भावना का अद्भुत उदाहरण है।
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