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Wednesday, 27 November 2013

बढ़ते ई-कचरे से निपटने की चुनौती


सूचना क्रांति के इस युग में इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के बिना जीवन की कल्पना मुश्किल है। मोबाइल, कंप्यूटर, लैपटॉप, टैबलेट आदि अब मनुष्य के जीवन का अभिन्न अंग बन गए हैं। पर इन आधुनिक उपकरणों के साथ ई-कचरे के रूप में एक बड़ी समस्या भी हमारे सामने आ खड़ी हुई है। ई-कचरे के अंतर्गत वे सभी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण आते हैं, जिनकी उपयोगिता समाप्त हो चुकी है। केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के अनुसार, ई-कचरे से तात्पर्य पूर्ण तथा टुकड़ों में उन सभी इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों तथा उनके उत्पादन और मरम्मत के दौरान निकले उन पदार्थों से है, जो अनुपयोगी हैं। प्रति वर्ष लगभग 20 से 50 टन ई-कचरा विश्व भर में फेंका जा रहा है।
ग्रीनपीस संस्था के अनुसार, ई-कचरा दुनिया भर में उत्पन्न होने वाले ठोस कचरे का लगभग पांच प्रतिशत है। साथ ही विभिन्न प्रकार के ठोस कचरे में सबसे तेज वृद्धि दर ई-कचरे में ही देखी जा रही है, क्योंकि लोग अब अपने टेलीविजन, कंप्यूटर, मोबाइल, प्रिंटर आदि को पहले से अधिक जल्दी बदलने लगे हैं। इनमें सबसे ज्यादा दिक्कत पैदा हो रही है कंप्यूटर और मोबाइल से, क्योंकि इनका तकनीकी विकास इतनी तीव्र गति से हो रहा है कि ये बहुत ही कम समय में पुराने हो जाते हैं और इन्हें बदलना पड़ता है।
भविष्य में ई-कचरे की समस्या कितनी विकराल हो सकती है, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि पिछले कुछ वर्षों में विकसित देशों में कंप्यूटर और मोबाइल उपकरणों की औसत आयु घटकर मात्र दो साल रह गई है। ट्राई की एक रिपोर्ट के अनुसार, देश में लगभग 90 करोड़ मोबाइल उपभोक्ता हैं। यदि इसमें कंप्यूटर उपभोक्ताओं की संख्या भी जोड़ दें, तो अंदाजा लगाइए है कि भविष्य में ई-कचरे की समस्या कितनी भयावह होने वाली है। एसोचैम के मानें, भारत में प्रतिवर्ष लगभग 30,000 टन ई-कचरा पैदा होता है, जिसमें लगभग 25 प्रतिशत की दर से वृद्धि हो रही है। 2015 तक यह तकरीबन 50,000 टन सालाना हो जाएगी। घटते दामों और बढ़ती क्रयशक्ति के कारण मोबाइल, टीवी, कंप्यूटर आदि की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। भारत जैसे देश में जहां शिक्षा और जागरूकता का अभाव है, वहां सस्ती तकनीक ई-कचरे जैसी समस्याएं ला रही है।
घरेलू ई-कचरे जैसे अनुपयोगी टीवी और रेफ्रिजरेटर में लगभग 1,000 विषैले पदार्थ होते हैं, जो मिट्टी एवं भू-जल को प्रदूषित करते हैं। इन पदार्थों के संपर्क में आने पर सिरदर्द, मतली, आंखों में दर्द जैसी समस्याएं हो सकती हैं। ई-कचरा हमारे स्वास्थ्य एवं वातावरण के लिए अत्यंत हानिकारक हैं। इसका पुनर्चक्रण एवं निस्तारण अत्यंत ही महत्वपूर्ण विषय है, जिसके बारे में गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। केंद्र सरकार ने ई-कचरे के प्रबंधन के लिए विस्तृत नियम बनाए हैं, जो एक मई, 2012 से प्रभाव में आ गए हैं। ई-कचरा (प्रबंधन एवं संचालन नियम) 2011 के अंतर्गत इसके पुनर्चक्रण एवं निस्तारण के लिए विस्तृत निर्देश दिए गए हैं। हालांकि इन दिशानिर्देशों का पालन किस सीमा तक किया जा रहा है, यह कह पाना कठिन है। जानकारी के अभाव में ई-कचरे के शमन में लगे लोग कई प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त हो रहे हैं। अकेले दिल्ली में एशिया का लगभग 85 प्रतिशत ई-कचरा शमन के लिए आता है, परंतु इसके निस्तारण के लिए जरूरी सुविधाओं का अभाव है। ई-कचरे में कई जहरीले और खतरनाक रसायन तथा अन्य पदार्थ जैसे सीसा, कांसा, पारा, कैडमियम आदि शामिल होते हैं, जो उचित शमन प्रणाली के अभाव में पर्यावरण के लिए काफी खतरा पैदा करते हैं। एसोचैम की रिपोर्ट के अनुसार, भारत अपने ई-कचरे के केवल पांच प्रतिशत का ही पुनर्चक्रण कर पाता है।
ई-कचरे के प्रबंधन में उत्पादक, उपभोक्ता एवं सरकार की संयुक्त हिस्सेदारी होनी चाहिए। हानिकारक पदार्थों का कम से कम प्रयोग करते हुए ई-कचरे के प्रशमन का उचित प्रबंधन करना उत्पादक की जिम्मेदारी है, तो उपभोक्ता की जिम्मेदारी है कि वह ई-कचरे को इधर-उधर न फेंक कर उसे पुनर्चक्रण के लिए उचित संस्था को दें। इसी तरह ई-कचरे के प्रबंधन के ठोस और व्यावहारिक नियम बनाना और उनका पालन सुनिश्चित करना सरकार की जिम्मेदारी है।
देश में ई-कचरा सालाना 25 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है, पर पांच प्रतिशत का ही हम पुनर्चक्रण कर पाते हैं।
विज्ञान

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