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Monday, 3 February 2014

चुप रहने का अधिकार

चुप रहने का अधिकार

दुनिया के विभिन्न देशों के साथ-साथ हमारे देश में भी मानवाधिकार हनन की शिकायतें आए दिन आती रहती हैं। इन्हीं मानवाधिकारों में चुप रहने का अधिकार (राइट टु साइलेंस) भी शामिल है, जो संविधान के अनुच्छेद 20 (3) के तहत नागरिकों को प्रदान किया गया है। 

चुप रहने के अधिकार का मतलब है कि किसी भी संदिग्ध या आरोपी व्यक्ति को अपने खिलाफ किसी भी तरह का साक्ष्य देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है और अगर संदिग्ध या आरोपी व्यक्ति पूछताछ के दौरान चुप रहता है, तो उसकी चुप्पी का कोई भी उलटा मतलब नहीं निकाला जा सकता है। इसी तरह अपराध प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 161 (2), धारा 313 और धारा 315 के तहत भी चुप रहने के अधिकार को मान्यता दी गई है।

 विधि आयोग ने भी अपनी 180वीं रिपोर्ट में नागरिकों के चुप रहने के इस अधिकार में किसी भी तरह का बदलाव करने से यह कहते हुए इन्कार कर दिया था कि ऐसा करना नागरिकों के सांविधानिक संरक्षण के खिलाफ होगा। विधि आयोग ने कहा कि अगर इस अधिकार में कटौती की जाती है, तो वह संविधान के अनुच्छेद 20 (3) और अनुच्छेद 31 के खिलाफ होगा। 

वर्ष 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने नार्को टेस्ट, ब्रेन मैंपिंग एवं लाइ डिटेक्टर टेस्ट को अनुच्छेद 20(3) का उल्लंघन बताया था। द इंटरनेशनल कॉवेनैंट ऑन सिविल ऐंड पॉलिटिकल राइट्स, 1966 (जिसका पक्षकार भारत भी है) भी चुप रहने के अधिकार को मान्यता देता है। दुनिया भर के कई देशों मसलन, ऑस्ट्रेलिया, बांग्लादेश, कनाडा, चेक गणराज्य, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, हांगकांग, नीदरलैंड, उत्तरी आयरलैंड, दक्षिण अफ्रीका, अमेरिका आदि में स्व-दोषारोपण के खिलाफ चुप रहने का अधिकार है।

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