एक महानायक का जाना
नेल्सन मंडेला आखिरकार मौत से हार गए, लेकिन जिस जीवटता के साथ वह जिए, ऐसी मिसालें इतिहास में बहुत कम मिलती हैं। उन्हें रंगभेद के खिलाफ लंबे और सफल संघर्ष ही नहीं, बल्कि लोकतंत्र और मानवता के लिए किए गए उनके महान प्रयासों के कारण भी याद रखा जाएगा। तकरीबन एक दशक से भले ही वह सार्वजनिक जीवन से अलग थे, मगर उनकी उपस्थिति किसी प्रकाश पुंज की तरह थी।
इस कल्पना से ही किसी के रोंगटे खड़े हो सकते हैं कि उन्हें अपने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण 27 बरस जेल की एक ऐसी छोटी कोठरी में बिताने पड़े थे, जहां वह ठीक से खड़े भी नहीं हो पाते थे। इस दौरान उन्हें अनेक परिजनों को खोना पड़ा और परिवार से दूर रहना पड़ा। अपने शुरुआती वर्षों में मंडेला ने भले ही सशस्त्र संघर्ष की पैरवी की थी, मगर अंततः उन्होंने गांधीवादी रास्ता ही चुना और यही बात उन्हें भारत के करीब ले आती है। यह अलग बात है कि पश्चिमी दुनिया उनकी रिहाई से कुछ बरस बाद तक उन्हें एक आतंकवादी के तौर पर ही देखती रही! हालांकि महात्मा गांधी के दक्षिण अफ्रीका से लौटने के चार बरस बाद मंडेला पैदा हुए थे, मगर यह इत्तफाक ही है कि पिछली सदी में जब ब्रिटिश शासन के खिलाफ गांधी का संघर्ष खत्म हो रहा था,
तकरीबन उसी समय 1948 में दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी यूरोपीय सरकार की स्थापना के बाद मंडेला ने संघर्ष शुरू किया। यह मंडेला ही थे, जिन्होंने कहा था कि भारत ने दक्षिण अफ्रीका को जो गांधी दिया था वह बैरिस्टर था, दक्षिण अफ्रीका ने उसे महात्मा गांधी के रूप में लौटाया! मगर मानवता के पक्ष में मंडेला का खुद का योगदान कम नहीं है। उनके संघर्ष के कारण ही उस नस्लवादी सरकार को झुकना पड़ा, जिसने अश्वेतों के मताधिकार से लेकर भिन्न नस्लों के बीच विवाह तक पर बंदिश लगा रखी थी और अश्वेतों के रहने तक की अलग जगह मुकर्रर कर दी थी।
प्रिटोरिया की रंगभेदी सरकार के खिलाफ अपने मुकदमे की सुनवाई के दौरान उन्होंने कहा था, ′मेरा संघर्ष एक ऐसे लोकतांत्रिक और मुक्त समाज के लिए है, जहां सभी लोग समान अवसरों और भाईचारे के साथ रह सकें। मैं इसके लिए संघर्ष करूंगा और जरूरत पड़ी, तो इसके लिए खुद को कुर्बान करने को भी तैयार हूं।′ वास्तव में नेल्सन मंडेला हमारे समय के महानायक थे। उन्हें यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी कि तमाम विविधताओं और भिन्नताओं के बावजूद हम शांति और सह-अस्तित्व के साथ रह सकें।
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